Friday, December 23, 2016

इक अनकही दास्ताँ



जब से बिछड़े हैं हम, बिखरा हूँ मैं तेरी यादों में,
सपनों में, ख्यालों में, जागते हुए और नींदों में,
मिलते हैं हम मेरी यादों में, गाते हैं, गुनगुनाते हैं, अनसुने से रागों में,
लिखतें हैं, सारी शीर्षक-हीन कवितायेँ, उन अनदेखे से रंगों में I

फिर से यादों में, घूमते हैं हम, मेरी टूटी-फूटी साइकिल पे बैठे,
लगे, भर जाता हूँ मैं, अन्दर से जैसे,
मिलता है मुझे, इक पूर्णता का अहसास, 
तेरे मधुर संगीत से, बे-लफ्ज़ रहते हैं हम, 
बोलते हैं बस मेरे बेकरार आंसू,
जैसे करते हैं बातें, वो तुम्हारी रूह से, इन सन्नाटों के साये में I


लगे समा जाऊं जैसे, उन फिज़ाओं के धीमे स्पंदन में,
नि-मग्न होके, खो जाऊं उन भावबोधक गहरी आँखों में,
वसीभूत हों जैसे मेरे प्राण, उस सनसनाती मीठी खुशबू में,
गिरवी हैं मेरी सारी उम्र, तेरी दिलकश हंसी की इक झलक में I

हर पल सोचूँ मैं, क्या नाम दूँ इस कहानी का,
कहाँ सजाऊँ इन बन्धनों की गांठों को, अपने कर्कश बे-रंग जीवन में,
हर पल सोचूँ कि सब कुछ दे दूँ उन्हें, हो जाऊं समर्पित उनके मायावी
स्वरुप में I


गम की परछाई भी ना पड़े उनपर, चाहे लग जाये मेरी उम्र
और सारे पुण्य उन्हें,
छीन लूँ उनके दर्द सारे, बेशक मैं सौदा कर लूँ मौत से, 
और दे दूँ उन्हें सारी ख़ुशी,
वो हँसते रहें, मुस्काते रहें, गुनगुनाते रहें गीत उनकी पसंद के,
भले वो भूल जायें हमें, गम नहीं, पर जियें वो यूँ ही स्वछंद से II
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उनके लिए समर्पीत,
अभीजीत ऊँ

6 comments:

  1. आपकी शीर्षक-हीन कवितायेँ बहुत बातूनी होती हैं..बहुत अच्छा लिखा है आपने...

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    1. धन्याबाद अजय जी. इसमे आपका बहत बड़ा योगदान हे हमे प्रेरित करने के लिए.

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