Monday, April 20, 2020

क्यों न मिली मुझे जुगनू कभी



क्यों न मिली मुझे जुगनू कभी 

अँधेरा ही अँधेरा था 
जैसे निगल के ये सारा जहाँ को
वो निश्चल निशब्द खड़ा था। 

ऐसी होती थी वहां रातें काली 
जैसे सदींयो से न हो कोई लौ जली 
हर वजूद वहां मिट जाता था
कभी उजाला नसीब नहीं होता था। 

एक दिन उस अंधेर की वीरानी को 
बेख्वाप जुगनू एक छेड़ जाती हे
उसके गहरे बंजर छाती पर
ख्वाब कुछ बुन जाती हे। 

नज़रे उसके उस चमक से भ्रमित
जुगनू की पीछा करती हे 
करके हसरतें बुंलद उसके 
हाथ जूनून से आगे बढ़ती हे। 

लगता हे जैसे छू लिया हो
पर बदनसीब धोखा खता हे 
कम्भख्त बौने की बढ़ती हथेली
क्या चुम्मा चाँद से ले पता हे।

तक़दीर का ये गंदे ताने पर
व बैठ सोचने लग जाता हे
जुगुनू को पाने जान दे दे या
इरादा कुदरत का कुछ दूसरा हे?

ये भीषण घना अँधेरा 
क्या जुगुनू के माला से टल जायेगा?
मेरे मन की ये क़दीम खालीपन
क्या तुच्छ चमक से भर पायेगा?

तलब के तमाम तिलिस्म में
तबाह जिंदगी हो जाती हे
पर बेग़र्ज़ इरादों के कदमो पे
पूरी कायनात झुक जाती हे 

जब जागे उम्मीदों के अमर पंख 
प्राण में हज़ारों दिये जलने लगते हे 
शर्माते हे ये जुगुनू सब, जब 
बदन पथर से आग निकलती हे

"क्यों न मिली मुझे जुगुनू कभी?"
सवाल मन में जब ये उभरता हे
आग से उजिआरा महफिल मेरा
मेरे तरफ मुड़के मुस्कराता हे। 

तभी न मिली मुझे जुगनू कभी ....!

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अभिजीत ॐ       

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