Tuesday, October 25, 2016

एक सुनसान बस्ती


एक सुनसान बस्ती,
जहाँ ना है आज, कोई डरावनी चीख़,
ना है कोई खिलखिलाहट,
ना मिले कोई गुनगुनाता हुआ प्रेमी,
ना ही मिले कोई रंगीन पंछी,
जैसे सब यहाँ, नि-शब्द, बे-रंग, बैरागी या  हैं ध्यान-मग्न I

वो उपेक्षित हवेली, वो खोयी हुई यादें,
वो धुंधले चेहरे, वो चुभती ख़ामोशी और चीखता शोर,
लगे जैसे गिरवी रखा हो बचपन मैंने, इन खंडरों में,
इसकी टूटी चट्टानों पर, दीवारों की खरोंचों पर,
समाहित सारी स्मृतियाँ,
जो जीवित कर रही हैं यादें सारी, अतीत के गर्भ से I

उस बस्ती के छोर पर, उस तालाब के किनारे,
वो देवी माँ का मंदिर, जहाँ अब मिलती नहीं बैचेन निगाहें,
अब नहीं बजती वहां कोई घंटी, न होता शंखनाद,
आता नहीं वहां, अब कोई, अपने बिखरे सपनों 
और बुनी हुई आशाओं के साथ, चमत्कार के लोभ में I

नयी नवेली दुल्हन सी लगती थी, वो जमीन,
पर आज है वो, परित्यक्त, बंजर और उदास,
ना वहां कोई अब बोता अनाज़, ना ही उम्मीदें,
निश्चल जैसे ग्रासा हुआ हो, इन आशियानों को I

आज मिलने अपने अतीत को,
यहाँ खोये हुए अपने प्रेम को, उसकी बोलती आँखों को,
उसके बचपन के ठीकाने को,
जिसे सदियों से भूला चुका है ये समाज,
जिसके अस्तित्व को कुतर दिया आधुनिकता ने,
ढूँढने आज फिर लौटा है वो राही,
समेटता हुआ खुद को अपनी कलम और सनम की यादों में II

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अतीत में खोया हुआ,
अभिजीत ॐ
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इस राही का हमसफ़र था एक मुसाफ़िर, 
जिसकी लेखनी का पता है: दास्ताँ-ऐ-दिल


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